समीक्षा तैलंग
हमारे यहां जुर्माना भी अभिशप्त है। कोई भी ऐरा-गैरा मुंह उठाए दे देता है। जैसे कुछ लोग मुंह उठाए गालियों की झड़ी लगा देते हैं। गोया सावन की झड़ी हो! ऐसे तो जुर्माने को खुद पर नाज़ करना चाहिए। लेकिन इसकी हालत बाज़ार के उस शेयर-सी भी नहीं जो आज गिरे तो कल उठ जाएंगे। अब तो जुर्माना भी बिज़नेस है। जीएसटी की तरह जेब से कटता रहता है। अख़बार भी इसकी मुनादी करते रहते हैं। आज हज़ार जुर्माने की रसीद कटी! कल का टारगेट इससे और ज़्यादा का रखेंगे!! मतलब कमाई के सामने डर गुमशुदा हो चुका है। पहले के समय में जुर्माना शब्द सुनते ही अपराधबोध से घिर जाता था, अगला। लेकिन अब तो जुर्माने का डंका भी फटीचर हाल में है। किसी भिखारी के बैंक बैलेंस की तरह।
हमारे फुफ़्फ़ुस में भरी कोलतार वाली सांसों की तरह जुर्माने का ख़ज़ाना भी काले-सफ़ेद से दिनोंदिन भर रहा है। देने वाला चालक, ऊपर वाले जैसा ही दे रहा है। और उसी की तरह मान नहीं रहा। लेकिन वो तो वो है!! मानेगा क्यों? हम, हम होते हुए भी नियम-कायदे से ज़्यादा, चालान को मानते हैं। हम वो सुरा लेने वालों में से हैं, जिस पर लिखा होता है, ‘शरीर के लिए हानिकारक।’ और पीने के बाद पास के खुले गटर में शूकर होने का आनंद भी लेते हैं।
यदि इतने ही जागरूक बन जाएंगे तो ट्रैफिक पुलिस का क्या काम रहेगा!! सिग्नल तो वैसे भी जगह-जगह लगे हैं, आगाह करने। इसलिए थोड़ी समाजसेवा उन चालकों ने भी उठा रखी है। ख़ाली तंबाकू घिसने या पुड़िया मुंह में भरने की तनख्वाह तो मिलने से रही। इसलिए चालकों ने पर्ची फाड़ने का काम उन्हें सौंपा है।
इन समाजसेवियों में सिग्नल तोड़ने वाले, मास्क या हेलमेट न लगाने वाले, ट्रिपलिंग करने वाले, रोड रेज करने वाले आदि सभी तरह के लोग शामिल हैं। इसमें ज़्यादातर हमारी एडवेंचर पसंद युवा पीढ़ी है। कुछ प्रौढ़ भी हैं। जिन्हें इस उम्र में भी जल्दबाज़ी है।
कुछ लोगों के लिए मास्क पर जुर्माना सचमुच हरजाई है। नेताओं की दिक़्क़त ये है कि मास्क लगाकर उन्हें पहचानेगा कौन! हालांकि चुनावी रैलियों पर जुर्माना लगाकर ट्रैफ़िक वालों का पूरा महकमा करोड़पति बन सकता है। लेकिन उनकी नौकरी की गारंटी ये जुर्माना नहीं दे सकता। इसलिए रैलियों में इसे छूट दी जाती है।
वहीं महिलाओं की अपनी परेशानियां हैं। शादी में मास्क लगाकर उनकी सुंदरता पर ये तानाशाही फ़रमान है। सलून से लिए महंगे पैकेज पर यह बट्टा है। सुंदरता का घोर अपमान करने का परिणाम विश्वामित्र भी भुगत चुके हैं। फिर कोरोना किस खेत की मूली है! उधर दिलफेंकू लड़के मल्टीप्लेक्स में भी दो गज की दूरी, मास्क है ज़रूरी का पालन करने पर मजबूर हैं। कुछ समय के साथ के लिए ये त्याग भी उन्हें मंज़ूर है। इस तरह वे असली समाजसेवी हैं।
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21 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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