बदलाव से घ&#

बदलाव से घाटी में अमन और विकास


उमेश चतुर्वेदी
पिछले बाईस महीनों में जिस तरह कश्मीरी अवाम ने अपनी सोच को अभिव्यक्ति दी है, उसके संदेश साफ हैं। अब कश्मीरी लोग भी चाहते हैं कि वहां अमन-चैन हो। जब अमन-चैन होगा तो जाहिर है कि भारत से लेकर दुनियाभर के सैलानी वहां आएंगे। इससे पर्यटक केंद्रित राज्य की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकेगी। कश्मीर की सोच में बदलाव का ही नतीजा है कि गुपकार गठबंधन के आठों दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर 24 जून को हुई बैठक में ना सिर्फ शामिल हुए, बल्कि उन्होंने आजादी के बाद से ही जारी पाकिस्तान के राग को कम से कम बैठक के दौरान नहीं अलापा।
पीडीपी हो या फिर उमर अब्दुल्ला, सबको पता है कि जब तक वे श्रीनगर या कश्मीर की सीमाओं में रहते हैं, उन्हें पाकिस्तान की याद खूब आती है। यह बात और है कि जब दिल्ली की ओर वे रुख करते हैं तो उनका रवैया बदला-सा नजर आता है। दरअसल कश्मीरी नेताओं के लिए पाकिस्तान एक ऐसी ग्रंथि रहा है, जिसके बहाने उनकी घाटी में यथास्थितिवादी राजनीति चलती रही है। इसके जरिए वे असंतुलित जनसंख्या अनुपात वाली विधानसभा में कम जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हुए भी जम्मू-कश्मीर राज्य के भाग्य विधाता बनते रहे हैं। दरअसल जनसंख्या जम्मू इलाके में ज्यादा है और विधानसभा की सीटें कश्मीर इलाके में ज्यादा। साफ शब्दों में कहें तो जम्मू-कश्मीर में अगस्त, 2019 के पहले तक अत्यल्प समर्थन वाली राजनीति ही राज्य का मसीहा होती रही है। पांच अगस्त, 2019 को भारत सरकार ने संसद के अधिनियम के जरिए राज्य को दो हिस्सों जम्मू-कश्मीर और लेह में बांट दिया, अनुच्छेद 370 के साथ ही केंद्रीय कैबिनेट के फैसले से जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत बहाल करने वाली धारा 35-ए को हटा दिया तो कश्मीरी घाटी के मूल निवासी जम्मू-कश्मीर की राजनीति के पुरोधा चाहें फारूक अब्दुल्ला हों या उनके बेटे उमर अब्दुल्ला या फिर पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती, सबको लगा कि अब तो राज्य पर उनकी पकड़ ढीली पड़ जाएगी और कश्मीर के विकास के नाम पर आने वाली बेहिसाब रकम का हिसाब देना पड़ेगा तो उन्होंने विशेष राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग तेज कर दी।
कश्मीर के दलों को लगा कि भारत सरकार नहीं झुकेगी तो उन्होंने श्रीनगर स्थित फारूक अब्दुल्ला के बंगले एक गुपकार रोड पर बैठक की। इसमें शामिल दलों को ही गुपकार गठबंधन कहा गया। इसमें नेशनल कानफ्रेंस और पीडीपी समेत छह और दल शामिल हैं। इस बैठक के बाद महबूबा ने कहा था कि जब तक जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा बहाल नहीं हो जाता, तब तक वे चुनाव नहीं लड़ेंगी। यह तय है कि मोदी सरकार अब कश्मीर की पुरानी स्थिति बहाल करने से रही। यह तथ्य पीडीपी प्रमुख महबूबा बखूबी जानती हैं।
सत्ता का सुख भोगने वाले नेता अब चाहते हैं कि कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया बहाल हो। बदले हालात में कांग्रेस और गुपकार गठबंधन के अलावा छह और दलों के नेताओं को लगा कि उनके पास प्रधानमंत्री की बैठक में शामिल होने के अलावा दूसरा चारा नहीं है। 24 जून की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह ने राजनीतिक प्रक्रिया की बहाली का न सिर्फ इशारा किया, बल्कि यहां तक कह दिया कि वे इस क्षेत्र यानी जम्मू-कश्मीर से दिल और दिल्ली की दूरी को जल्द से जल्द हटाना चाहते हैं। साथ ही यह भी कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा सीटों का जल्द से जल्द परिसीमन होना चाहिए, ताकि राज्य में विधानसभा चुनाव सफलतापूर्वक कराए जा सकें।
दरअसल, अब तक जम्मू-कश्मीर की विधानसभा सीटों में जनसंख्या के लिहाज से बदलाव नहीं हुआ। यही वजह है कि कश्मीर घाटी की तुलना में जम्मू संभाग में ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद वहां घाटी की तुलना में कम यानी 36 सीटें ही थीं। जब तक राज्य एक था, तब तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 111 सीटें थीं। इसमें कश्मीर के खाते में 46 सीटें, जम्मू के खाते में 37 और लद्दाख की चार सीटें थी। वहीं पाक अधिकृत कश्मीर की 24 सीटों को भी इसी में गिना जाता था और उन्हें खाली रखा जाता था। अब बदली हुई परिस्थिति में लद्दाख की चार सीटें नहीं रहीं। लिहाजा जम्मू-कश्मीर में सिर्फ 107 सीटें ही रह गई हैं। जाहिर है कि परिसीमन के बाद स्थितियां बदलेंगी। जम्मू इलाके में सीटें बढ़ेंगी। वैसे यह असंतुलन ही रहा है कि आजादी के बाद से अब तक ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद जम्मू संभाग से कोई मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। अब लगता है कि परिसीमन से स्थितियां बदलेंगी ।
बहरहाल गुपकार गठबंधन केंद्र के सामने झुकता नजर आ रहा है। उसे अब भारत सरकार की शर्तों पर बात करने में समझदारी नजर आने लगी है। परिसीमन आयोग की रिपोर्ट अगस्त तक आने की उम्मीद है। अगर सब कुछ केंद्र सरकार की सोच के मुताबिक आगे बढ़ता रहा तो तय है कि इसके बाद राज्य में विधानसभा बहाल हो सकती है और फिर राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
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8 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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