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भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि स्वदेशी खिलौने


क्षमा शर्मा
भारत में विश्व के बारह साल तक के बच्चों में से पचीस प्रतिशत बच्चे रहते हैं। इसी साल फरवरी के महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारतीय बच्चों के लिए प्राकृतिक चीजों से बने इको फ्रेंडली खिलौने बनने चाहिए। प्लास्टिक को खिलौनों से दूर रखना चाहिए। उन्होंने कठपुतली आदि का जिक्र भी किया। उन्होंनेे कहा कि भारत खिलौना हब बने। खिलौनों पर आयात शुल्क भी बढ़ाया गया था, जिससे कि घटिया खिलौनों पर रोक लग सके। अब पचीस जून को फिर से टॉयकैथान-2021 में भाग लेते हुए प्रधानमंत्री ने ऐसे खिलौनों को बनाने पर जोर दिया है जिन्हें देखकर दुनिया भारतीय समाज को जान सके। उनका कहना था कि आज पूरा विश्व भारत की सामर्थ्य, भारतीय समाज और उसकी कला, संस्कृति को ज्यादा बेहतर तरीके से समझना चाहता है। इसमें खिलौना और गेमिंग उद्योग बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। विश्व का खिलौना उद्योग सौ अरब डॉलर का है। लेकिन इसमें भारत की हिस्सेदारी केवल डेढ़ अरब डॉलर की है। यहां तक कि हम बड़ी संख्या में खिलौने आयात करते हैं और देश का करोड़ों रुपया बाहर चला जाता है। इसे बदलना जरूरी है। 
उन्होंने यह भी कहा कि हमारा ध्यान ऐसे खेल-खिलौनों पर हो जो हमारी युवा पीढ़ी को भारतीयता का हर पहलू रोचक तरीके से बताएं। हमारा खिलौने मनोरंजन तो करें ही, हमें शिक्षित भी करें और व्यस्त रखें। 
भारत में कितनी विविधता है। कितने तरह के पहनावे हैं, आभूषण हैं, रंग हैं। चित्रकारी है, पशु-पक्षी, फूल हैं। आखिर इनसे प्रेरणा लेकर खिलौने क्यों नहीं बनाए जा सकते। लेकिन अरसे से हम बार्बी गुड़िया, तमाम कार्टून कैरेक्टर्स, तरह-तरह की आवाजें निकालती बंदूकें, बच्चों को हिंसक बनाने वाले न जाने कितने वीडियो और कम्प्यूटर गेम्स देख रहे हैं। अब छोटे से छोटा बच्चा सांप-सीढ़ी या लूडो खेलना नहीं चाहता। ऑनलाइन बहुत से गेम्स तो ऐसे भी देखने में आए हैं, जिनमें जीतने वाले को किसी न किसी की हत्या करनी पड़ती है। दशकों से हमारी बच्चियां जिस बार्बी से खेल रही हैं, उसका बाकायदा फिगर बनाया गया, वैसा ही जैसा कि औरतों के लिए आदर्श बताया जाता है। यानी कि बच्चियों का पहला काम है कि बचपन से ही वे अपने फिगर छत्तीस, चौबीस, छत्तीस के आंकड़े का ध्यान रखें। बार्बी को नई स्त्री से जोड़ने के लिए बाकायदा एमपावर्ड स्त्री की तरह भी प्रचारित किया गया। उसे स्टेटस सिम्बल भी बना दिया गया। यही नहीं, उसका ब्वॉयफ्रेंड भी था। यानी कि बचपन से ही बच्चियों को अपने ब्वॉयफ्रेंड तलाश करना चाहिए। 
इसके बरअकस कपड़े से बनी गुड़ियों के परिवार को इस लेखिका ने बचपन में देखा था। इसे बहन की एक सहेली ने बनाकर उपहार में दिया था। पुराने कपड़ों से बनी ये गुड़ियां, उनकी वेशभूषा, गहने सब पुराने कपड़ों, घर में ऱखे किसी चमकीले गोटे लगे कपड़ों, टूटी हुई माला के मोतियों, रंग-बिंरगे पत्थरों और नगों आदि से तैयार किए गए थे। इस परिवार में दादा, दादी, माता, पिता, भाई-बहन, बुआ और चाचा, ताऊ और उनके बच्चे थे। उनकी वेशभूषा और कपड़े भी वैसे ही थे, जो उन दिनों समाज में पहने जाते थे। यानी कि संयुक्त परिवार की तस्वीर इसमें देखी जा सकती थी। बच्चों के चेहरे बेहद मासूम थे।
ये गुड़ियां घरेलू महिलाएं, कई बार पुरुष भी अपने परिवार के बच्चों के लिए बनाते थे। पुराने कपड़ों और घर में पड़े बेकार सामान की इस बहाने रिसाइक्लिंग भी हो जाती थी। इसके अलावा तमाम रिश्तों के महत्व को भी इनके जरिए समझा जा सकता था। फिर परिवारों की आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि बाजार से खिलौने खरीदे जा सकें। बाजार में भी लकड़ी, मिट्टी, जूट, घास-फूस, लोहे, पीतल, पेपरमैशी के खिलौने मिलते थे। ये भी स्थानीय सामानों से तैयार किए जाते थे। बच्चों का मेले में जाने की जिद करने का एक बड़ा कारण, इन खिलौनों को प्राप्त करना होता था। बहुत से परिवारों में इन्हें घर में ही बनाया जाता था। पास के तालाब और पोखर से चिकनी मिट्टी लाकर खिलौने बनाना और सुखाने के बाद उन्हें रंगना, बहुत से बच्चों का बहुत प्यारा शौक था। इन्हें रंगने के लिए भी हल्दी, कुमकुम, गेरू, चूना, घास और फूलों के रंग होते थे। इसीलिए ये खिलौने इको फ्रेंडली भी होते थे। 
लेकिन वक्त बदला। खिलौनों की दुनिया में रबर, प्लास्टिक चाबी भरकर चलाए जाने वाले और बैटरी से चलने वाले, खिलौनों ने दस्तक दी। जिन घरों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी, वे अपने बच्चों के लिए ये खिलौने खरीदने लगे। खिलौनों और उनसे खेलने वाले बच्चों का गरीब-अमीर का भेद साफ दिखने लगा। इन खिलौनों में सैनिक, टैंक, कारें, बंदूकें, तोपें, तरह के करतब दिखाती गुड़ियां आदि शामिल थे। आपको उन्हीं दिनों का एक गाना याद आ सकता है ‘जितनी चाबी भरी राम ने उतना चले खिलौना।’ हर बच्चे में इन्हें पाने की चाह होने लगी। वे घर में बने खिलौनों से खेलने से मना करने लगे। और इस तरह वे खिलौने जो स्थानीय उत्पादों से तैयार होते थे, कारीगरों को रोजी-रोटी देते थे, घरेलू बेकार सामान को उपयोग में लाते थे, बच्चों को तमाम तरह की सीख देते थे, उनकी क्रिएटिविटी भी बढ़ाते थे, वे बच्चों के जीवन और उनके मनोरंजन से गायब हो गए। लकड़ी की बैलगाड़ियां, तांगे, इक्के, घोड़े, बैल, समाज से बाद में गायब हुए, खिलौनों की दुनिया से वे पहले खदेड़ दिए गए।
अस्सी के दशक में एक पांच सितारा होटल में बच्चों के लिए आयोजित कार्यक्रम में गई थी। वहां खिलौनों की प्रदर्शनी भी लगी थी। देखकर दंग रह गई कि वहां लकड़ी की बैलगाड़ी और तांगा रखा था। कपड़े की गुड़ियां और कठपुतलियां भी थीं। लकड़ी के छोटे-छोटे बरतन भी थे। टी-सेट था। लेकिन बहुत महंगे दामों पर। यानी कि गरीब की दुनिया से गायब होकर ये खिलौने अमीरों के ड्राइंगरूम में पहुंचे। किसी दुर्लभ वस्तु की तरह बेहद महंगे भी हो गए। इन्हें बनाने वाले कारीगर भी खत्म हो गए। महिलाओं के पास भी अब इतना वक्त कहां। वे दिन भर की नौकरी करें या इन्हें बनाएं।
इसीलिए यदि ऐसे खिलौने फिर से बनाए जाएं, उद्योग बनाएं, माता-पिता उन्हें खरीदें, ऑनलाइन गेम्स भी ऐसे हों, जिनसे बच्चों को अच्छे संस्कार मिलें, तो अच्छा ही है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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9 घंटे पहले
8 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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