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Aaj Ka Shabd Yashaswi Kedarnath Agrawal Best Poem Are Kabutar Mugdh Hua Mai - आज का शब्द: यशस्वी और केदारनाथ अग्रवाल की कविता- अरे कबूतर! मुग्ध हुआ मैं

Aaj Ka Shabd Yashaswi Kedarnath Agrawal Best Poem Are Kabutar Mugdh Hua Mai - आज का शब्द: यशस्वी और केदारनाथ अग्रवाल की कविता- अरे कबूतर! मुग्ध हुआ मैं
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Aaj Ka Shabd Yatn Mahavir Prasad Madhup Best Poem Kadwi Baaton Ke Saman Hota Koe Aghat Nahi - आज का शब्द: यत्न और महावीर प्रसाद मधुप की रचना- कड़वी बातों के समान होता कोई आघात नहीं

यत्न यानि प्रयास, कोशिश, उपाय या रक्षा का प्रबन्ध। अमर उजाला हिंदी हैं हम शब्द श्रृंखला में आज का शब्द है- यत्न। प्रस्तुत है महावीर प्रसाद मधुप की रचना: कड़वी बातों के समान होता कोई आघात नहीं कड़वी बातों के समान होता कोई आघात नहीं बिना यत्न के बन पाती है कोई बिगड़ी बात नहीं संभव नहीं कदाचित जग में तम के बाद प्रकाश न हो प्रात न जिसके साथ जुड़ा हो, ऐसी कोई रात नहीं कठपुतली य

Aaj Ka Shabd Lalitya Premshankar Shukla Poem Meri Pratima Ka Anawaran - आज का शब्द: लालित्य और प्रेमशंकर शुक्ल की कविता- मेरी प्रतिमा का अनावरण

आनंद का अतिरेक छलकता है  तुम मुझे बरजती हो लाज से  #लालित्य से मोह लेती हो  देह के जल से आत्मा भीज जाती है  आत्मा की आँच से देह  प्यार और पानी साथ ही आए हैं  पृथ्वी पर  हम भीगकर आए हैं जिससे थोड़ी देर पहले  पता नहीं धरती पर यह किस पीढ़ी की बारिश है  प्यार की भी पीढ़ियाँ होती हैं  हो सकता है किसी जन्म का छूटा हमारा प्यार  पूरे आवेग में उमड़ आया है अभी  और अपनी युगीन प्रतीक्षा को कर रहा है फली�

Aaj Ka Shabd Parv Mahadevi Verma Best Poem Sub Bujhe Deepak Jala Lun - आज का शब्द: पर्व और महादेवी वर्मा की कविता सब बुझे दीपक जला लूं!

पर्व का अर्थ होता है- धर्मकार्य करने का समय, अवसर, बड़ा उत्सव। अमर उजाला हिंदी हैं हम शब्द श्रृंखला में आज का शब्द है- पर्व। प्रस्तुत है महादेवी वर्मा की कविता: सब बुझे दीपक जला लूँ!  सब बुझे दीपक जला लूँ!  घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ!  क्षितिज-कारा तोड़कर अब  गा उठी उन्मत्त आँधी,  अब घटाओं में न रुकती  लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,  धूलि की इस वीणा पर मैं तार हर तृण का मि

Aaj Ka Shabd Pallav Sumitranandan Pant Best Poem Parivartan - आज का शब्द: पल्लव और सुमित्रानंदन पंत की कविता- परिवर्तन

भूतियों का दिगंत-छबि-जाल, ज्योति-चुम्बित जगती का भाल? राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार? स्वर्ग की सुषमा जब साभार धरा पर करती थी अभिसार! प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार, (स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार) गूंज उठते थे बारंबार, सृष्टि के प्रथमोद्गार! नग्न-सुंदरता थी सुकुमार, ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार! अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात, कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात? दुरित, दु:ख, �

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