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रोजगार, महंगाई और...आसान नहीं है मोदी कैबिनेट 2.0 की राह, आर्थिक मोर्चे पर ये 3 चुनौतियां सबसे भारी
रोशन किशोर हिन्दुस्तान टाइम्स,नई दिल्लीPublished By: Priyanka
Sun, 11 Jul 2021 08:39 AM
केंद्र में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का लगभग आधा हो जाने के बाद पिछले दिनों कैबिनेट में फेरबदल किया गया है। इस बदलाव को चुनाव वाले राज्यों में सरकार और संगठन की कार्यक्षमता बेहतर करने की कवायद से जोड़कर भी देखा जा रहा है। अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश और वर्ष के अंत में गुजरात, सबसे महत्वपूर्ण राज्य हैं, जहां चुनाव होने हैं। ऐसे में सरकार और सत्ताधारी दल के सामने सामाजिक, क्षेत्रीय मामलों के साथ आर्थिक मोर्चे पर भी कई चुनौतियां हैं। खासकर तब, जबकि साल 2024 में वे लगातार तीसरी बार जनादेश मांगने उतरेंगे। शेयर बाजार, निजी क्षेत्र की आय में गिरावट से नुकसान और मुद्रास्फीति बड़ी आर्थिक चुनौतियां हो सकती हैं। आइए तीनों क्षेत्रों के हालात नजर डालते हैं...
1- शेयर बाजार
उच्च आय वर्ग में राहत की भावना बरकरार रखना
शेयर बाजार 7 जुलाई को एक और सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गया था। शेयर बाजारों में उछाल ने बाहरी निवेशकों के बीच भारत की छवि को बेहतर किया है। एक तरह से, शेयर बाजारों ने आर्थिक मंदी के खिलाफ अच्छी तरह से आबादी के एक वर्ग को प्रतिरक्षा प्रदान की है जो महामारी की चपेट में आने से पहले भी मौजूद थी। इस वर्ग में कई प्रमोटर और उद्यमी शामिल हैं, जिनकी संपत्ति उनकी कंपनी के शेयर की कीमतों पर निर्भर करती है। मार्च 2014 को समाप्त तिमाही और मार्च 2021 के बीच बीएसई एसएंडपी इंडेक्स का बाजार पूंजीकरण ढाई गुना बढ़ गया है। इस अवधि के दौरान भारत की नॉमिनल जीडीपी में लगभग दोगुना बढ़ोतरी हुई है। अगर शेयर बाजारों में तेजी जारी रही तो इसमें रुचि लेने वाले उच्च आय वर्ग में राहत की भावना बनी रहेगी।
2- निजी क्षेत्र की आय
निजी क्षेत्र वालों की आय में सुधार के कदम
वास्तव में पूंजीगत फायदे की तुलना में आय में लाभ अधिक महत्वपूर्ण है। यहीं पर सरकार को अपनी सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। निजी क्षेत्र के दायरे में आने वालों की आय में सुधार होना जरूरी है। महामारी के आर्थिक झटके ने पूरे श्रम आय को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। हालांकि, महामारी की चपेट में आने से पहले भी चीजें बहुत अच्छी नहीं थीं। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद भारत के निजी क्षेत्र को झटका लगा क्योंकि निर्यात वृद्धि कम हो गई। जबकि दूसरी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के अंतिम चरण और पहली मोदी सरकार के शुरुआती चरण के दौरान सुधार का दौर था। अर्थव्यवस्था वास्तव में 2008 से पहले की गति को कभी भी पुनर्प्राप्त नहीं कर पाई। इसका सीधा असर मजदूरों व कम आय वालों की कमाई पर पड़ा। कॉरपोरेट क्षेत्र की कंपनियों के कर्मचारियों के साथ-साथ दैनिक ग्रामीण वेतन में वार्षिक वृद्धि पहली मोदी सरकार के कार्यकाल के दूसरे भाग में स्थिर रही। 2024 से पहले इसमें कितना सुधार आ पाएगा, यह महामारी के निम्न स्तर से उबरने की रफ्तार पर निर्भर करेगा।
3. मुद्रास्फीति
महंगाई से आम आदमी को निजात दिलाना
मुद्रास्फीति और महंगाई का आर्थिक सेक्टर में सबसे बड़ा रोल है। जैसे-जैसे कीमतें बढ़ती हैं, आय या मजदूरी में वृद्धि नाममात्र होती जाती है। 2020-21 में भारत की जीडीपी में 7.3% का संकुचन हुआ। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई), मुद्रास्फीति आदि में वृद्धि हुई। यह 2013-14 के बाद से सीपीआई में सबसे अधिक वार्षिक वृद्धि है। 2018-19 के चुनावों से पहले मुद्रास्फीति असाधारण रूप से निम्न स्तर पर थी। कम मुद्रास्फीति के माहौल ने आय में वृद्धि धीमी की है। इसका किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, क्योंकि कृषि विकास का नाममात्र घटक गैर-कृषि विकास की तुलना में तेज गति से ढह गया। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजे इसी ग्रामीण गुस्से की अभिव्यक्ति थे। भाजपा ने तुरंत पीएम-किसान योजना की घोषणा करके एक सुधार किया। आने वाले समय में महामारी से अर्थव्यवस्था पर असर के मद्देनजर ये चुनौती और बढ़ी होगी।
 
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