ज्ञानेन्द्र रावत
नदियों की अविरलता का सवाल वर्तमान परिदृश्य में अति महत्वपूर्ण है। यह कटु सत्य है कि नदियों की हमारे देश में मां की तरह पूजा की जाती है। उन्हें पुण्यसलिला की संज्ञा से विभूषित किया गया है। समूची दुनिया में जितनी हमारे देश में नदियों रूपी संपदा है, ऐसी मिसाल दुनिया के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलती। लेकिन आज उसी भारत में जीवन रेखा कही जाने वाली सदानीरा नदियां मर रही हैं। आज हालत यह है कि हमारे देश की 445 नदियों में प्रदूषण का स्तर मानक से कहीं बहुत ज्यादा है। उनमें विषैले तत्व इस कदर मौजूद हैं कि उनका पानी पीने की बात तो दीगर है, आचमन लायक तक नहीं है। उनमें निर्धारित मानक से भी कई गुणा ज्यादा भारी धातुओं की मात्रा मौजूद है।
यदि सिलसिलेवार जायजा लें तो पता चलता है कि देश की तकरीबन 137 नदियों में आयरन, 69 में लैड, 50 में कैडमियम और निकल, 21 में क्रोमियम और 10 में कॉपर अधिकतम मात्रा में पाया गया है। हालात इतने गंभीर हैं कि इसके चलते लोग लीवर सिरोसिस, डायबिटीज, हृदय रोग, गुर्दा रोग, अनीमिया, फेफडे, सांस, पेट के रोग, जोड़ों में दर्द, सीने में खिंचाव, बेहोशी, मांसपेशियों में दर्द, खांसी, थकान, उच्च रक्तचाप, कैंसर, अल्सर, हड्डियों की बीमारी व डायरिया के शिकार होकर अनचाहे मौत के मुंह में जाने को विवश हैं। पर्यावरण विज्ञान केन्द्र भी इसकी पुष्टि कर चुका है।
सबसे बुरी हालत तो गंगा, जिसे मोक्षदायिनी कहते हैं और ब्रह्मपुत्र की है, जिसका पानी सबसे ज्यादा प्रदूषित है। गौरतलब है कि देश में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में आज से तकरीबन पैंतीस साल पहले गंगा के शुद्धीकरण की शुरुआत हुई थी। तकरीबन बारह साल पहले यमुना को टेम्स बनाने का वायदा किया गया था। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद नमामि गंगे मिशन की शुरुआत हुई। उसके बाद उमा भारती ने तवी नदी के उद्धार का वायदा किया। लेकिन दुख है कि न गंगा साफ हुई, न यमुना और न तवी। ऐसे हालात में देश की अन्य नदियों की शुद्धि की आशा कैसे की जा सकती है।
इसमें दो राय नहीं कि युग परिवर्तन के साथ-साथ नदियों के प्रति हमारी सोच में भी बदलाव आया है। नदियों की बदहाली उसी सोच का नतीजा है। हालात की विकरालता का अंदाजा इससे लग जाता है कि मौजूदा दौर में देश की अधिकांश नदियां प्रदूषित हैं। कुछ सूख गई हैं, कुछ जो बारह महीने बहती थीं, अब मौसमी होकर रह गई हैं। बीते 50-60 सालों से देश की नदियों के प्रवाह में कमी और पहाड़ों, कुंडों और झरनों से निकलने वाली अनेक छोटी नदियां अब मौसमी बनकर रह गयी हैं। हमारा दायित्व है कि जिन नदियों ने लाखों सालों से हमें गले लगा रखा है, जो जीवनदायिनी कही जाती हैं, उन्हें मरने ना दें। दुख है कि आज वे सदानीरा नहीं रह गई हैं। इसलिए हमारा दायित्व है कि हम उन्हें बचायें। यदि ये नहीं रहीं, तो यह भी निश्चित है कि हम भी नहीं बचेंगे।
दरअसल देश में नदियों की शुद्धि और रक्षा की बाबत सभा-सम्मेलन, विचार गोष्ठियां और साधु-संतों द्वारा सिंहनाद करते घूमना अब आम हो गया है। नदियों की रक्षा हेतु आंदोलन भी नयी बात नहीं है। कभी गंगा बचाओ, कभी यमुना बचाओ, कभी नर्मदा बचाओ आदि यात्राओं का सिलसिला चलता रहता है। गंगा रक्षा हेतु युवा संन्यासी स्वामी निगमानंद सरस्वती का आमरण अनशन और बलिदान, स्वामी शिवानंद सरस्वती के गंगा में खनन माफिया के विरुद्ध संघर्ष और अनशन और गंगा पुत्र के नाम से विख्यात प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंदजी के गंगा की अविरलता हेतु किए गए आमरण अनशन और बलिदान को लोग अभी भूले नहीं हैं। नदियों को बचाने का दावा करने वाले श्रीश्री रविशंकर दिल्ली में यमुना के प्रवाह क्षेत्र में भव्य आयोजन कर यमुना के प्रवाह क्षेत्र की तबाही के कारण भी बन चुके हैं। जग्गी वासुदेव भी नदियों को बचाने का दावा करते हैं। हां, राजेन्द्र सिंह इसके अपवाद जरूर हैं, जिन्होंने मरु प्रदेश की सात नदियों को परंपरागत तरीकों से पुनर्जीवित करने का काम किया है। लेकिन मौजूदा हालात इसके सबूत हैं कि अभी तक नदियों की रक्षा की दिशा में किए गए सारे प्रयास नाकाम साबित हुए हैं।
वर्तमान में नदी के प्रवाह का सवाल सबसे अहम है। प्रवाह की अविरलता का अर्थ है, नदी में सालभर कभी भी न खत्म होने वाला और लगातार बहने वाला न्यूनतम प्रवाह। वह प्रवाह जो नदी तल के ऊपर बहता हुआ साफ तौर पर दिखाई देता है। वह पर्याप्त मात्रा में तभी संभव हो पाता है जब नदियों को प्रवाह उपलब्ध कराने वाली प्रक्रियाओं काे छेड़छाड़ के बिना बराबर सहयोग मिलता रहता है। वर्तमान में भूजल के अत्यधिक दोहन और वन भूमि के कम होते जाने के कारण नदियों के प्रवाह में कमी बेहद चिंतनीय है। यहां अहम सवाल यह है कि किसी के भी प्रयास से हो, नदियां प्रदूषण मुक्त होनी चाहिए। वे अविरल बहनी चाहिए। यह जितनी जल्दी हो, उतना ही समाज और देश के भविष्य के लिए अच्छा है।
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4 घंटे पहले
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दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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