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Leaving The Busy Life Of The City, Started The Startup In The Village Of Uttarakhand; Turnover Of 1 Crore, Also Added 100 People To Employment
आज की पॉजिटिव खबर:शहर की भाग दौड़ भरी जिंदगी छोड़ उत्तराखंड के गांव में शुरू किया बिजनेस; आज 1 करोड़ रु. टर्नओवर, 100 लोगों को रोजगार से भी जोड़ा
नई दिल्ली2 घंटे पहलेलेखक: इंद्रभूषण मिश्र
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शहर की भाग दौड़ भरी जिंदगी और चकाचौंध छोड़कर गांव में बसना। वहां के कल्चर, जंगल, पहाड़ों और खेत खलिहानों का लुत्फ उठाना, इससे ज्यादा सुकून भरा जीवन और क्या होगा। ऊपर से रोजगार और कमाई का जरिया मिल जाए तो फिर क्या कहना, सोने पर सुहागा।
बेंगलुरु की रहने वाली अमृता अपने पति संतोष के साथ करीब 20 साल पहले उत्तराखंड के एक गांव में बस गईं। यहां उन्होंने गांव के लोगों की दिक्कतों को समझा, रिसर्च किया और फिर अपने स्टार्टअप की शुरुआत की। आज वे इको विलेज के मॉडल पर उत्तराखंड के स्थानीय प्रोडक्ट को ग्लोबल पहचान दे रही हैं। भारत के साथ-साथ विदेशों में भी अपने प्रोडक्ट की सप्लाई कर रही हैं। एक करोड़ रुपए से ज्यादा उनका सालाना टर्नओवर है।
51 साल की अमृता के पति मूल रूप से जर्मनी के रहने वाले हैं। अब उन्होंने भारत की नागरिकता ले ली है। दोनों की मुलाकात पुणे में ओशो के आश्रम में हुई थी। फिर दोनों ने शादी कर ली। संतोष पेशे से साइकोलॉजिस्ट रहे हैं।
एक बार गांव गए तो वहीं के होकर रह गए
गांव की स्थानीय महिलाएं अमृता की कंपनी के लिए काम करती हैं। वे नेचुरल तरीके से सभी प्रोडक्ट तैयार करती हैं।
अमृता बताती हैं कि साल 2002 की बात है। तब मैं संतोष के साथ लखनऊ में रहती थी। एक बार हम यू हीं उत्तराखंड घूमने के लिए गए। वहां हमें एक अजीब चीज देखने को मिली। वहां बाहर से आने वाले लोग किसी स्थानीय की जमीन पर एक घर बनाकर छोड़ देते थे। वे छुट्टियों में यहां आते थे और फिर लैंड होल्डर को घर की रखवाली की जिम्मेदारी देकर वापस लौट जाते थे।
तब अलग-अलग जगहों पर जाने, लोगों से मिलने और उनके रहन-सहन को देखने के बाद पता चला कि यहां नेचुरल रिसोर्सेज तो बहुत हैं, लेकिन इसके बाद भी ज्यादातर स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। कई लोग माइग्रेट भी हो चुके हैं। लोग अपनी विरासत को सहेज नहीं पा रहे हैं।
अमृता कहती हैं कि तब मैंने संतोष से बात की और तय किया कि हम यहीं एक गांव में रहकर कुछ ऐसा काम शुरू करते हैं, जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिले और हमारी भी कमाई हो सके। इसके बाद दोनों यहीं के होकर रह गए। वापस लखनऊ नहीं लौटे।
6 साल रिसर्च, लोगों से मिले और रोजगार के अवसर ढूंढे
अमृता ने करीब 100 महिलाओं को रोजगार से जोड़ा है। इससे इन महिलाओं की अच्छी कमाई हो जाती है।
अमृता और संतोष ने करीब 6 साल रिसर्च में बिताए। अलग-अलग गांवों में गए। वहां के लोगों से मिले। उनकी आर्थिक दिक्कतों को समझा। वहां के स्पेशल प्रोडक्ट के बारे में जानकारी जुटाई। अमृता कहती हैं कि इस दौरान हमें बहुत कुछ सीखने और समझने को मिला। उत्तराखंड और पहाड़ी रीजन में कई ऐसी चीजें मिलीं जिसका वैल्यू एडिशन किया जा सकता था। कई प्रोडक्ट्स की दूसरे राज्यों, यहां तक कि विदेशों में भी अच्छी डिमांड होती है, लेकिन यहां के लोकल लोग उसका कॉमर्शियल लेवल पर इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें बेहतर मार्केटिंग का प्लेटफॉर्म नहीं मिलता है।
साल 2008 में अल्मोड़ा के एक गांव में दोनों ने मिलकर SOS Organics के नाम से अपने बिजनेस की शुरुआत की। किराए पर एक घर लिया और अपनी सेविंग्स से एक छोटी सी प्रोसेसिंग यूनिट तैयार की। यहां उन्होंने साबुन, शहद, चाय, मिलेट्स, कैंडल, ऑयल सहित दर्जनों प्रोडक्ट बनाना शुरू किया। हेल्थ से लेकर कॉस्मेटिक तक के प्रोडक्ट्स बनाकर वे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, जयपुर जैसे शहरों में भेजने लगे। धीरे-धीरे उनका कारोबार बढ़ता गया। एक के बाद एक कई स्थानीय किसान भी उनसे जुड़ते गए।
50 से ज्यादा वैरायटी के प्रोडक्ट बना रहे हैं
फिलहाल अमृता हेल्थ से लेकर कॉस्मेटिक तक के 50 से ज्यादा प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग कर रही हैं।
अमृता कहती हैं कि हम किसी भी प्रोडक्ट के क्रियेटर नहीं हैं। यह सब कुछ स्थानीय किसान करते हैं। हमारा काम तो वैल्यू एडिशन का है। जैसे यहां बिच्छू घास खूब होती है। इम्युनिटी बढ़ाने के लिए उसका इस्तेमाल किया जाता है। उसकी चाय भी बनती है। इसी तरह यहां के मिलेट्स की भी भरपूर डिमांड होती है। पहाड़ी नमक तो काफी फेमस है।
हम लोग स्थानीय किसानों से उनके प्रोडक्ट खरीदते हैं। उसके बाद उन्हें धूप में सुखाते हैं। फिर मशीन की मदद से अलग-अलग प्रोडक्ट बनते हैं। इसके बाद उनकी पैकेजिंग और वैल्यू एडिशन का काम होता है। खास बात यह है कि इसमें किसी केमिकल या प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल हम नहीं करते हैं। हम सब कुछ नेचुरल तरीके से ही करते हैं। कलर करने के लिए भी डाई की जगह प्लांट के कलर का इस्तेमाल हम करते हैं।
अमृता बताती हैं कि हम लोग वाटर कंजर्वेशन को लेकर भी काम कर रहे हैं। बरसात के पानी का ही हम लोग इस्तेमाल करते हैं और स्थानीय किसानों को भी उसके लिए प्रेरित करते हैं। 2 लाख लीटर से ज्यादा पानी हम हार्वेस्ट कर चुके हैं। इतना ही नहीं, बिजली के लिए भी हम सोलर सिस्टम का इस्तेमाल करते हैं। फिलहाल अमृता की टीम 50 से ज्यादा तरह के प्रोडक्ट्स बना रही है। उन्होंने 100 से ज्यादा स्थानीय लोगों को रोजगार से जोड़ा है, जबकि 30 लोग उनके अपने इम्प्लॉई हैं।
अमृता की टीम में काम करने वाली स्थानीय महिला। अमृता ने गांव में ही प्रोसेसिंग यूनिट लगाई है, जहां सभी प्रोडक्ट बनते हैं।
कैसे करते हैं मार्केटिंग?
फिलहाल अमृता ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही प्लेटफॉर्म से मार्केटिंग कर रही हैं। देश के कई शहरों में उनके रिटेलर्स हैं। होलसेल में भी वे दिल्ली, मुंबई सहित कई शहरों में मार्केटिंग करती हैं। वे सोशल मीडिया और अपनी ई कॉमर्स वेबसाइट के माध्यम से भी देशभर में मार्केटिंग करती हैं। भारत के बाहर भी जापान और दूसरे देशों में उनके प्रोडक्ट जाते हैं। साथ ही अमेजन और फ्लिपकार्ट पर भी उनके प्रोडक्ट उपलब्ध हैं। उनके हिमालयन शहद की 250 ग्राम पैक की कीमत 220 रुपए है। आंवला शैम्पू बार 190 रुपए में, हिमालयन मिलेट 110 रुपए में और लग्जरी साबुन की कीमत 190 रुपए है।
अमृता फिलहाल ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही प्लेटफॉर्म के जरिए अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कर रही हैं।
बिच्छू घास से चाय कैसे बनाएं?
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बिच्छू घास आसानी से मिल जाती है। इसकी पत्तियों को तोड़कर धूप में दो से तीन दिन तक सुखाया जाता है। इसके बाद लेमन ग्रास, तुलसी पत्ता, तेजपत्ता और अदरक डालकर एक मिश्रण तैयार किया जाता है। अब इसे पानी में जरूरत के मुताबिक शक्कर डालकर उबाल लें। आपकी चाय तैयार है।
लोकल लोग इस पहाड़ी घास को बिच्छू घास या कंडाली बोलते हैं। सर्दी-खांसी के साथ-साथ इसका उपयोग सब्जी बनाने में भी किया जाता है। इसमें विटामिन सी और विटामिन ए भरपूर मात्रा में मिलता है। ये इम्युनिटी बूस्टर होती है। साथ ही डायबिटीज और गठिया रोग में भी फायदेमंद है।
क्या है इको विलेज मॉडल?
ऐसे गांव जहां ऑर्गेनिक खेती की जाए। प्रोडक्ट की प्रोसेसिंग और ब्रांडिंग की जाए। जहां फूड्स से लेकर रहन-सहन की सभी चीजें लोकल और पूरी तरह से नेचुरल हों। जहां के किसानों को काम की तलाश में कहीं बाहर जाने की बजाय अपने गांव में ही रोजगार मिल सके। हेल्थ से लेकर वेल्थ तक का इंफ्रास्ट्रक्चर हो। यानी हर तरह से आत्मनिर्भर गांव को इको विलेज कहा जाता है। (पढ़िए पूरी खबर)
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