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India Taliban Vs US Military Withdrawal From Afghanistan; Update From Mutlaq Bin Majed Al Qahtani
भास्कर एक्सप्लेनर:भारत ने तालिबान से संपर्क बढ़ाना शुरू किया; 20 साल बाद अफगानिस्तान से लौटेंगे अमेरिकी सैनिक, तालिबान 50 जिलों पर काबिज
नई दिल्ली/दोहा7 घंटे पहलेलेखक: त्रिदेव शर्मा
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अफगानिस्तान से 20 साल बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी 11 सितंबर तक पूरी होगी। इस बीच, दो चौंकाने वाली खबरें आई हैं। पहली- तालिबान अफगानिस्तान के 50 जिलों पर कब्जा कर चुका है। दूसरी- भारत इस वक्त तालिबान के संपर्क में है। कतर की राजधानी दोहा में भारतीय अफसरों और तालिबानी नेताओं के बीच बातचीत हुई है।
अफगानिस्तान या पाकिस्तान में तालिबान की ताकत को दुनिया जानती है। इसलिए तालिबान के 50 जिलों पर कब्जे की बात से ज्यादा हैरानी नहीं होती, लेकिन भारत जैसा लोकतांत्रिक देश अगर तालिबान जैसे आतंकी संगठन से संपर्क करता है तो यह बात चौंकाती है। भारत का विदेश मंत्रालय इस मामले पर चुप है, लेकिन कतर के चीफ निगोशिएटर मुतलाक बिन मजीद अल कहतानी ने इसकी पुष्टि कर दी है। यहां हम इस मामले को विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं।
क्या और कैसा है तालिबान? कंधार विमान अपहरण में क्या रोल था?
1979 से 1989 तक अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का शासन रहा। अमेरिका, पाकिस्तान और अरब देश अफगान लड़ाकों (मुजाहिदीन) को पैसा और हथियार देते रहे। जब सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान छोड़ा तो मुजाहिदीन गुट एक बैनर तले आ गए। इसको नाम दिया गया तालिबान। हालांकि तालिबान कई गुटों में बंट चुका है।
तालिबान में 90% पश्तून कबायली लोग हैं। इनमें से ज्यादातर का ताल्लुक पाकिस्तान के मदरसों से है। पश्तो भाषा में तालिबान का अर्थ होता हैं छात्र या स्टूडेंट।
पश्चिमी और उत्तरी पाकिस्तान में भी काफी पश्तून हैं। अमेरिका और पश्चिमी देश इन्हें अफगान तालिबान और तालिबान पाकिस्तान के तौर पर बांटकर देखते हैं।
1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत रही। इस दौरान दुनिया के सिर्फ 3 देशों ने इसकी सरकार को मान्यता देने का जोखिम उठाया था। ये तीनों ही देश सुन्नी बहुल इस्लामिक गणराज्य थे। इनके नाम थे- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और पाकिस्तान।
1999 में जब इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी-814 को हाईजैक किया गया था। तब इसका आखिरी ठिकाना अफगानिस्तान का कंधार एयरपोर्ट ही बना था। उस वक्त पाकिस्तान के इशारे पर तालिबान ने भारत सरकार को एक तरह से ब्लैकमेल किया। तीन आतंकियों को रिहा किया गया और तब हमारे यात्री देश लौट सके थे।
कतर के दावे में कितनी सच्चाई है?
कतर के चीफ निगोशिएटर अल कहतानी के मुताबिक- तालिबान से बातचीत के लिए भारतीय अधिकारियों ने दोहा का दौरा किया है। हर किसी को लगता है कि तालिबान भ‌विष्य में अफगानिस्तान में बड़ा रोल प्ले करने वाला है। इसलिए हर कोई उससे बातचीत करना चाहता है। भारत ने अफगानिस्तान की बेहद मदद की है और वो वहां अमन और स्थिरता चाहता है।
ये बात तो रही कतर के अफसर की। अब इसे हालिया सिर्फ एक घटना से जोड़कर देखें तो तस्वीर साफ हो जाती है। दरअसल, हमारे विदेश मंत्री दो हफ्तों में दो बार दोहा पहुंचे और यहां कतर की टॉप लीडरशिप से मुलाकात की। दूसरी बात- कतर में तालिबान की पॉलिटिकल लीडरशिप है और वे कई पक्षों से यहीं बातचीत कर रहे हैं। ऐसे में यह मान लेने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि भारत भी अफगानिस्तान की बदलती हकीकत को स्वीकार करके तालिबान को तवज्जो देने लगा है।
भारत तालिबान से बात क्यों कर रहा है? क्या ये नई पॉलिसी है?
इसका जवाब डिफेंस और स्ट्रैटजिक एक्सपर्ट सुशांत सरीन से जानते हैं। सरीन कहते हैं- इस तरह के संपर्क तो किसी न किसी स्तर पर पहले भी थे और होने भी चाहिए। हालांकि, ये कहना मुश्किल है कि ये कितने कारगर साबित होते हैं। 1990 के आसपास तो तालिबान ने खुद भारत से संपर्क किया था। खुफिया स्तर पर तो संपर्क जरूर रहा होगा। हां, ऑफिशियली इसे कन्फर्म नहीं किया जाता। फिलहाल, जो कुछ सामने आ रहा है, ये शायद पहली बार ही हो रहा है।
लोकतांत्रिक सरकार की आतंकी संगठन से बातचीत कितनी सही?
सरीन के मुताबिक- डिप्लोमेसी में कई बार ऐसे लोगों से भी बातचीत करनी होती है, जिन्हें शायद आप कभी अपने घर बुलाना पसंद न करें। लेकिन बात तो सबसे करनी ही होती है। जैसे रिश्ते तो हमारे नॉर्थ कोरिया से भी हैं, लेकिन हम उन्हें अप्रूवल तो नहीं देते। इसलिए बातचीत करने या संपर्क रखने में कुछ गलत नहीं है। हमारे मन में यह आशंका है कि तालिबान पाकिस्तान का पिट्ठू है, लेकिन अगर वो कॉन्टैक्ट बनाते हैं तो हम क्यों पीछे रहें? अफगानिस्तान में अभी जो हुकूमत है, उससे हमारे बहुत अच्छे रिश्ते हैं। अफगानिस्तान में कभी भी और किसी की भी जरूरत पड़ सकती है। हमें ये ध्यान रखना होगा कि नए दोस्तों के साथ ही हम पुराने दोस्तों से भी अच्छे रिश्ते रखें।
तालिबान को लेकर भारत की नीति अब तक क्या रही है?
भारत ने तालिबान को कभी आधिकारिक मान्यता नहीं दी। उसने जब बातचीत की पेशकश की तो उसे भी स्वीकार नहीं किया गया। दरअसल, भारत सरकार ने कभी तालिबान को पक्ष माना ही नहीं, लेकिन इन बातों को गुजरे जमाना हो चुका है। हालात, अब वैसे नहीं रहे, जैसे कंधार विमान अपहरण कांड के वक्त थे। लिहाजा, किसी भी स्तर पर सही, सरकार तालिबान के संपर्क में तो है। विदेश मंत्रालय ने पिछले दिनों कहा था- हमने हमेशा अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना चाहा है। इसके लिए हम कई पक्षों से संपर्क में हैं।
भारत अब तालिबान से संपर्क क्यों कर रहा है?
dw.com से बातचीत में वॉशिंगटन बेस्ड विल्सन सेंटर के डिप्टी डायरेक्टर माइकल कुग्लमैन कहते हैं- यह बेहद अहम है कि नई दिल्ली एक कम्युनिकेशन चैनल की शुरुआत कर रही है। हालांकि, मुझे इससे हैरानी नहीं होती। भारत सरकार कुछ महीनों से तालिबान से संपर्क की कोशिशों में जुटी हुई थी। बाकी देश तो बहुत पहले ये काम कर चुके थे। भारत अब कर रहा है।
पाकिस्तान के तालिबान से कैसे रिश्ते हैं, इमरान सरकार किस बात से परेशान है?
पाकिस्तान और तालिबान के गहरे रिश्ते हैं और ये कोई कही-सुनी बात नहीं, बल्कि ऑन रिकॉर्ड है। 1989 में सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से निकलते वक्त जो समझौता हुआ था, उसमें पाकिस्तान भी शामिल था। आज भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री तालिबानी नेताओं से खुलेआम मिलते हैं और फोटो सेशन कराते हैं। हालांकि, जब पाकिस्तान ने 2001 में अमेरिका को मिलिट्री और एयरबेस दिए तो तालिबान उसका दुश्मन बन गया। पेशावर के आर्मी स्कूल पर हमला तालिबान ने ही कराया था। अमेरिका ने सैकड़ों बार पाकिस्तान पर आरोप लगाया कि वो तालिबानी गुट हक्कानी नेटवर्क को पनाह दे रहा है। वहां की आर्मी और खुफिया एजेंसी ISI तालिबान लड़ाकों को ट्रेनिंग और हथियार मुहैया कराती रही है।
पाकिस्तान को यह कभी रास नहीं आएगा कि तालिबान किसी भी सूरत में भारत से संपर्क में रहें, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान की अफगानिस्तान में भूमिका बहुत कमजोर हो जाएगी। यही वजह है कि अमेरिका ने इस बार पाकिस्तान की बजाय कतर और दूसरे खाड़ी देशों के जरिए तालिबान को भरोसे में लेने की कोशिश की है।
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