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पूरन सरमा
मेरे मोहल्ले में कुत्तों की नस्ल दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। कुत्ता संरक्षण के मामले में मेरे मोहल्ले के निवासी जीव-प्रेमियों से कम नहीं हैं। उन्होंने न तो कभी नगरपालिका में इस बात की शिकायत ही की कि उनके यहां कुत्तों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, न ही नगरपालिका ने आवश्यक समझा कि कुत्तों के परिवार नियोजित करने की दिशा में कोई कारगर कदम उठाये। इसका भरपूर लाभ कुत्तों ने पूरी निर्भयता से उठाया है। उनका कुत्ता प्रेम देखिये कि उनके घर के सदस्यों को ये अनेक बार काट चुके हैं तथा चौदह इंजेक्शन लगवाने की जहमत झेल चुके हैं। उसके बाद भी वे कुत्तों के खिलाफ ‘उफ’ तक नहीं कर पाये हैं। प्रतिवर्ष ये कुत्ते अपना अलग राज्य बनाने की दिशा में सक्रियता से आबादी बढ़ा रहे हैं और हम हैं कि जानते-बूझते भी आंख मूंदे कुत्तों को सिर उठाने का मौका देते जा रहे हैं। आदमी का यह श्वान सुख व प्रेम समझ से परे है।
मैं थोड़ा कुत्तों से डरता हूं और इसीलिए सावधान भी रहता हूं। मुझे कुत्ते दिखाई देते ही कंपकंपी लगती है तथा मैं उस स्थिति में ‘हनुमान चालीसा’ करके प्राणरक्षा करता हूं। अब बताइये कि क्या मैं इनसे मुक्ति के लिए इनकी शिकायत नगरपालिका में भी नहीं करता? मैंने शिकायत क्या की, एक आफत मोल ले ली। कुत्तों ने तो मेरे खिलाफ सोचा या नहीं, यह तो नहीं जानता परन्तु कुत्ता प्रेमियों के कोप का भाजन मुझे अवश्य बनना पड़ा। मोहल्ले के सभी संभ्रांत निवासी नागरिकगण मेरे पास आये और बोले, ‘आपने इन मूक निरीह पालतू कुत्तों की शिकायत नगरपालिका में की है?’
मैं बोला, ‘देखिये मैंने शिकायत अवश्य की है परन्तु घबराइये नहीं, नगरपालिका के कानों पर कोई जूं नहीं रेंगेगी। मैंने तो परेशान होकर एक पत्र लिख मारा था।’
शिष्टमण्डल का एक सदस्य, ‘हो हो’ कर हंसा और बोला, ‘श्रीमानजी आप में जीवों के प्रति थोड़ी-बहुत दया-धर्म नहीं है। आप नहीं जानते ये कुत्ते पालतू हैं तथा हमारे मोहल्ले की रक्षा करते हैं। ये दूसरे कुत्तों को अपने यहां नहीं आने देते।’
मैंने कहा, ‘कमाल करते हैं आप! जब अपने मोहल्ले में ही इतने कुत्ते हैं तो दूसरे मोहल्ले के कुत्तों को आने की भला क्या जरूरत है! रहा इनके पालतू होने का, ये फिर अब तक पचास लोगों को काट कर अस्पताल पहुंचा चुके हैं।’
‘अजी अब वैसे यह ठहरे तो जानवर ही। छेड़ो तो काट भी खायें। परन्तु चोरी-चकारी से बड़ा बचाते हैं।’ एक दूसरे सज्जन ने दलील दी।
मैंने कहा, ‘चोरी से क्या खाक बचाते हैं, मौलाना साहब के चोरी हो रही थी, तब ये कम्बख्त कहां गये थे?’
तभी एक सज्जन झट से बोले, ‘वह तो मौलाना साहब की गलती थी। कुत्ते तो उस रात खूब भौंके थे।’
मैं बोला, ‘अजी साहब ये तो हर रात ही भौंकते हैं तथा सोने नहीं देते। अब इस तरह इनके भौंकने को चोरी का मामला मान लें तो क्या होगा।’
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6 घंटे पहले
5 घंटे पहले
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दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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