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दो दशक बाद भी कारगिल युद्ध में भारतीय जांबाजों के शौर्य-वीरता की गाथाएं हर भारतीय को राष्ट्रभक्ति के ओज से भर देती हैं। दुनिया के सबसे ऊंचे स्थानों में लड़े गये कारगिल युद्ध को भारतीय सैनिकों ने जीता। दुश्मन ऊंचाई पर था और हमारे जवान नीचे स्थानों पर। यह युद्ध पाक के छल-धोखे का भी पर्याय था। एक तरफ फरवरी, 1999 में लाहौर घोषणापत्र में दोस्ती की बातें हो रही थीं और दूसरी तरफ बड़े पैमाने पर भारतीय दुर्गम क्षेत्रों में सुनियोजित घुसपैठ कर ली गई। दरअसल, इन दुर्गम इलाकों में बर्फ की चादरें बिछ जाने पर शिमला समझौते के तहत भारतीय जवान कम दुर्गम स्थानों में चले आते थे, जिसका फायदा पाक ने छल करके उठाया। उसने कभी घुसपैठियों को जिहादी कहा तो कभी कश्मीर की स्वतंत्रता के योद्धा, लेकिन वे पूरी तरह पाकिस्तानी सैनिक थे, जिनके अंतिम अवशेष उठाने भी पाकिस्तानी नहीं आये। जिन्हें भारतीय सेना ने गरिमामय अंतिम सम्मान दिया। निस्संदेह, जो भी तिरंगे के लिये बलिदान देता है, उसके प्रति हमारा मन श्रद्धा-सम्मान से भर जाता है। मई, 1999 से शुरू हुए कारगिल युद्ध का समापन 26 जुलाई को भारत की जीत के साथ हुआ। इस अभियान को आपरेशन विजय नाम दिया गया। अत: हर साल 26 जुलाई को हम शहीदों को श्रद्धांजलि देने व जवानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये कारगिल विजय दिवस मनाते हैं। करीब साठ दिन चले इस युद्ध की हमने बड़ी कीमत चुकाई। जटिल भौगोलिक परिस्थितियों में युद्ध के चलते हमने पांच सौ से अधिक वीर जवानों को खोया और चौदह सौ से अधिक जवान व अधिकारी घायल हुए थे।
दरअसल, कारगिल युद्ध जहां पाकिस्तान की कायरता, छल और झूठ की दास्तां बयां करता है, वहीं भारतीय जवानों के राष्ट्रभक्ति के जज्बे और मुश्किल हालात में खुद को ढालने के हुनर को दर्शाता है। पाक ने सैनिकों व अर्द्धसैनिकों को छिपाकर भारतीय इलाकों में भेजा। उसका मकसद कश्मीर से लद्दाख को अलग-थलग करना, भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से हटाना तथा कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना था। शुरुआती दौर में जिसे सामान्य घुसपैठ माना गया, बाद में वह अघोषित युद्ध साबित हुआ। एक बड़े षड्यंत्र को पाक सेना के माहिरों की देखरेख में अंजाम दिया गया था। लेकिन यह युद्ध कई मायनों में भारतीय सेना हेतु प्रेरक सबक साबित हुआ। भारतीय जवानों को ऊंचाई वाले इलाकों में युद्ध का अनुभव मिला, जो हाल में चीनी घुसपैठ पर चीनियों पर भारी पड़ा। युद्ध के बाद भारत सरकार ने एक विशेषज्ञ कमेटी बनायी थी, जिसकी अधिकांश सिफारिशों पर अमल करके सेना की मारक क्षमता को धारदार-असरदार बनाया गया। भारतीय वायुसेना की युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका के बाद इसके आधुनिकीकरण को प्राथमिकता दी गई। ऊंचे इलाकों मे लड़ाई की चुनौती के मुकाबले में रही कमी-बेशी को अत्याधुनिक रफाल विमानों की आमद ने पूरा कर दिया। आज भारत चीन-पाक की साझा चुनौती का भी मुकाबला करने की स्थिति में आ गया है। देश की सीमाओं की निगरानी व सुरक्षा को इसके बाद पुख्ता बनाया गया है।
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17 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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