क्षमा शर्मा
हाल ही में फिल्मी दुनिया या बालीवुड में दिलीप कुमार की मृत्यु और आमिर-किरण की शादी का टूटना काफी चर्चा में रहा। इसके अलावा नीना गुप्ता की जीवनी के भी कुछ अंश पढ़ने में आए। नीना का साक्षात्कार भी एक चैनल पर प्रसारित हुआ। नीना का कहना है कि फिल्मों में सफलता प्राप्त करने के लिए किसी भी नयी लड़की को किसी शादीशुदा डायरेक्टर से सम्बंध नहीं बनाने चाहिए क्योंकि एक तो आप उसकी जिंदगी में पहली लड़की नहीं हैं। ऐसी लड़कियां रोज उसके पास आती हैं। दूसरे, वह कभी भी आपके लिए अपनी पत्नी को नहीं छोड़ेगा।
बहुत साल पहले मधुर भंडारकर ने फिल्म बनाई थी-फैशन। उसमें लगभग ऐसी ही घटना दिखाई गई थी। नीना ने यह भी कहा कि एक ऐसे ही डायरेक्टर से उनका नाम जोड़ दिया गया था। उन्होंने डायरेक्टर की पत्नी को भी बहुत समझाने की कोशिश की कि उन दोनों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है, तो उसकी पत्नी ने कहा था कि और भी लड़कियां तो उनके साथ काम करती हैं। उनके साथ क्यों नाम नहीं जुड़ा। फिर उस डायरेक्टर ने नीना को कभी काम नहीं दिया। हालांकि मशहूर फिल्म निर्देशक और प्रोड्यूसर सावन कुमार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि नीना गुप्ता ने मुझसे कहा था कि कुछ भी कर लो मगर मुझे हीरोइन बना दो। उस समय सावन कुमार भी विवाहित थे। ऐसे ही राम गोपाल वर्मा ने एक बातचीत में कहा है कि वह किसी लड़की से कोई जबरदस्ती नहीं करते।
दिलचस्प है न कि जिस दौर में अपने देश में ऐसे कानून हैं, जहां मात्र पंद्रह सेकंड देखने भर से लड़के को सजा हो सकती है। गलत चित्र, कार्टून, अश्लील चुटकुला सुनाने को यौन शोषण के दायरे में रखा गया है, उन दिनों भी फिल्मी दुनिया की स्त्रियों के शोषण से जुड़ी सच्चाइयों पर कोई नहीं बोलना चाहता। वे लड़कियां भी नहीं जो इस तरह के शोषण से गुजरती हैं। और अनेक बार तमाम तरह की मुसीबतें झेलने के बावजूद उन्हें काम नहीं मिलता। यदि उनसे इस बारे में पूछो तो वे बड़ी मासूमियत से कहती हैं कि शोषण कहां नहीं है। नौ से पांच की नौकरी में भी है। सिर्फ फिल्मी दुनिया को ही बदनाम मत करिए। दरअसल वे इस सच्चाई को जानती हैं कि जिस दिन इन बातों पर मुंह खोलेंगी, काम मिलना बंद हो जाएगा। इस तरह के शोषण को संघर्ष कहा जाता है।
एक बार डिम्पल कपाड़िया ने कहा था कि उन्हें काम पाने के लिए तरह-तरह के शोषण से गुजरना पड़ा है, मगर अब बस। हेमामालिनी ने भी बहुत साल पहले, परवीन बाबी को याद करते हुए कहा था कि एक बार उसने बताया था कि एक फिल्म में काम पाने के लिए उसे कई लोगों को खुश करना पड़ा था। पुराने जमाने की मराठी अभिनेत्री हंसा वाडेकर ने भी अपनी आत्मकथा में इस तरह की बातों का जिक्र किया है। उनकी आत्मकथा पर भूमिका नाम से फिल्म भी बनी थी।
ऐसे में दशकों से जब देखती हूं कि बड़ी-बड़ी हीरोइनें युवा लड़कियों को आकर बताती हैं कि वे यौन शोषण से कैसे बचें, वे एमपावर्ड वुमैन कैसे बनें, कैसे जो चाहें सो करें और अपने सपनों को उड़ान देने के लिए परिवार को छोड़ना पड़े तो भी कोई बात नहीं तो लगता है कि जो ज्ञान वे आकर देती हैं, उसमें भी अपने बहुत से व्यापारिक हित छिपे होते हैं। बात बेशक वे समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाने की कर रही हों। आपने यह भी देखा होगा कि दूसरी लड़कियों को सफलता के लिए परिवार को रोड़ा समझकर तज देने का ज्ञान देने वाली ये तथाकथित एमपावर्ड हीरोइंस, शादी करते और मां बनते ही अचानक दुनिया की सर्वश्रेष्ठ मां होने का टैग अपने माथे से चिपका लेती हैं और बहुत-सी जो कल तक अकेले रहने को दुनिया की सबसे अच्छी बात बता रही थीं, कहने लगती हैं कि वे तो बचपन से ही मां बनना चाहती थीं। उनका करियर नहीं, परिवार ही उनकी प्राथमिकता है।
बहुत बार जब इनके रिश्ते टूट जाते हैं, शादी नहीं चल पाती है तो भी ये एक डिप्लोमेटिक चुप्पी ओढ़ लेती हैं। आमिर की पत्नी किरण राव ने भी ऐसा ही किया है। हालांकि किरण हीरोइन नहीं है, मगर वह एक बड़े अभिनेता की पत्नी है, फिल्म निर्माता भी है, इसलिए शायद उन्होंने कुछ मीठे-मीठे बयान दिए और चुप रहना ही बेहतर समझा है।
हालांकि हाल ही में जारी एक वीडियो में अभिनेता और फिल्म समीक्षक केआरके ने यह भी बताया कि आमिर और किरण की ये खबर दरअसल एक पीआर एजेंसी जो इन दोनों का काम देखती है, उसकी रणनीति का हिस्सा है। इसी बहाने आमिर की आने वाली फिल्म लाल सिंह चड्ढा का प्रमोशन होने की योजना बनाई गई। जितनी निगेटिव पब्लिसिटी, उतनी ही सफलता। इसी एजेंसी ने आमिर से किरण को भारत में डर लगने वाला बयान दिलवाया था। यही एजेंसी दीपिका पादुकोण की ब्रांडिंग का काम भी देखती है। इसलिए इसी ने छपाक के प्रमोशन के दौरान दीपिका को विरोध करते छात्रों के बीच भेजा था।
यह कितने अफसोस की बात है कि मानवीय सम्बंधों की गरिमा को व्यापार के हितों को देखते हुए कुर्बान किया जा रहा है। कहां तो सम्बंधों को चलाने के लिए हर स्वार्थ और लालच की बलि दे दी जाती थी, मगर अब इसका उलटा हो रहा है। दर्शक के हर इमोशन पर व्यापारी वर्ग की नजर लगी हुई है। उसका शोषण करके, भावनाओं में बहाकर, उन्हें भड़का कर, किस तरह अपनी जेब भरी जाए, यह इन दिनों नया नार्मल बन चला है। हर नये विचार को हड़प कर उसे अपने तरीके से तोड़-मरोड़कर पेश करना, झूठ फरेब को सच कहना, सच की तरह से पेश करना, इस दौर की सच्चाई है। अक्सर ये अभिनेता–अभिनेत्रियां समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, मगर करते इसके विपरीत हैं। क्या यही समाज के प्रति जिम्मेदारी है कि लोगों को भ्रम में डालकर, उनकी भावनाओं का शोषण किया जाए।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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9 घंटे पहले
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।
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